क्युं नही आते है
जभी मह्सूस करते है तनहाई में, ,
आपको हम ढुंढते है अपनी ही परछाइ में
हाथ बढातॅ है हम इसी ख्वाइश में,
दुआ करते मिलने की हर गुझारीश में
दिल भर आता तो रो लेते है कभी,
रोना अच्छा है बरसती बारीश में
छ चलते चलते जब हम रुक जाते है,
वो गुझरे हुए पल हमे क्युं बुलाते है
जो लोग हम से युं दूर चले जाते है,
जब भी बुलाते है उनको वो वापस क्युं नही आते है
लेखक मिलिंद महेता
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