
वह् पल
लोटा दो वह् पल जब दुनिया को ठेंगा दिखाते थे
कोलेज के गेट से लोगो पर हसी उडाते थे
जब सोचते थे एक दिन इस दुनीया पर राज करेंगे
अपने अरमानो के सफर का आगाझ करेंगे
आसमान पे होगा सर और दुनीया को रखेंगे कदमो के नीचे
तेझ तर्रार बाईक पे बेठ्कर, कर देंगे झमाने को पिछे
जब बाहर नीकले तो पता चला कि हम भी उसी भीड का हिस्सा है
जैसी थी उनकी कहानी कुछ एसा हि हमारा किस्सा है
लग रहा था जिंदगी वही फिल्म फिर से दिखा रही हो जैसे
सब कुछ है बील्कुल एक सा बद्ले से किरदार हो जैसे
जाने क्युं आज फिर से वह मंझर हमे याद आते है
जिस गेट से हसते थे वह आज हमे रूलाते है
जाने क्युं खुबसूरत पल इतनी जल्दी चले जाते है
और आज भी वह पल आंखे नम कर जाते है
लेखक मिलिंद महेता
nice blog..bahut acha likha hai apne ..pad kar maza aa gaya..
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